दिल्ली से 2014 में शीला दीक्षित की सरकार जाने के 11 साल बाद ये पहला मौका है जब कांग्रेस चुनाव लड़ती नजर आ रही है। लिहाजा चुनाव त्रिकोणीय हो गया है। कांग्रेस ने इंडिया गठबंधन में समाएं आम आदमी पार्टी से नाता तोड़ लिया है। वहीं बीजेपी ने अब दिल्ली की ड्राइविंग सीट पर खुद बैठने का मन बना लिया है। आरएसएस और बीजेपी को अब लगने लगा है कि उसे दिल्ली में या तो किसी शिखंडी की जरूरत नहीं रह गई है या फिर शिखंडी की भूमिका ही खत्म हो चुकी है। लिहाजा अरविंद केजरीवाल चुनाव प्रचार के इस आखिरी दौर में बीजेपी और कांग्रेस पर समान धार से हमला करते नजर आ रहे हैं।
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“दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल की राजनीति और रणनीति संघ परिवार के इर्द-गिर्द ही घूमती रही है। केजरीवाल या कह लीजिए आम आदमी पार्टी का जन्म ही आरएसएस और बीजेपी की कांग्रेस मुक्त भारत की परिकल्पना को साकार करने के लिए हुआ था। जिसके लिए महाराष्ट्र के अन्ना हजारे को सूत्रधार बनाया गया था और उसके सबसे बड़े मोहरे केजरीवाल थे। लिहाजा विचारधारा विहीन केजरीवाल दिल्ली और पंजाब में अपनी कामयाबी के बाद देशभर में वोटकटुआ की भूमिका निभाते रहे हैं। जिसका फायदा बीजेपी को मिला है।”
दरअसल केजरीवाल संघ के फॉर्मूले पर ही सरकार चलाते हैं। जिसकी बुनियाद झूठ और दूसरों की कामयाबी का सेहरा अपने माथे पर बांधने पर आधारित है। लिहाजा वो सरकार की झूठी उपलब्धियों के प्रचार पर पानी की तरह पैसा बहाते है। एक छोटे से केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली विज्ञापनों पर सालाना 500 करोड़ से ज्यादा खर्च करती है। इन विज्ञापनों के पीछे की मानसिकता हिटलर के प्रचार मंत्री जोसेफ गोएबल्स से ही प्रेरित है। गोएबल्स कहते थे, एक झूठ को अगर 100 बार दोहराया जाए तो लोग उसे सच मानने लगते हैं। इसी फॉर्मूला से 2013 में गुजरात मॉडल का गुब्बारा फुलाया गया था।

दिल्ली में शिक्षा, स्वास्थ्य की बेहतरी के मॉडल दरअसल एक ऐसा ही फूला हुआ गुब्बारा है। जिसकी हवा जब भी निकालने की कोशिश की जाती है केजरीवाल उसमें जल्दी-जल्दी विज्ञापनों से सहारे और हवा भरने लगते हैं। और दिल्ली के लोगों को ऐसा भ्रम होने लगता है कि दिल्ली में शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में सचमुच अच्छा काम हुआ है। जो हकीकत से कोसो दूर है। क्योंकि इस मॉडल को सच मानने वाले लोगों का कभी हकीकत से सामना ही नहीं होता है। मसलन किसी स्कूल की गुणवत्ता केवल उसकी इमारत से तय नहीं होती है। वहां पढ़ाई का स्तर और शिक्षकों की संख्या से भी तय होती है। लेकिन केजरीवाल कभी स्कूल में शिक्षकों की बात नहीं करते। अभी चुनाव कवरेज के दौरान ही पता चला कि दिल्ली के सदर बाजार इलाके के स्कूलों में साइंस की पढ़ाई ही नहीं होती क्योंकि कोई शिक्षक ही नहीं है।
और अंत में बात केजरीवाल और संघ के तल्खी भरे रिश्तों की। पुराना मुहावरा है, ‘जब गीदड़ की मौत आती है तो वह शहर की तरफ़ भागता है।’ कुछ ऐसा ही हाल केजरीवाल साहब का है। दिल्ली विधानसभा चुनावों से पहले जब बीजेपी ने उनपर शराब, स्कूल और अस्पताल घोटालों को लेकर दबाव बनाना शुरू किया तो वो संघ परिवार के मुखिया मोहन भागवत से मदद की गुहार लगाने लगे। सवाल ये है कि मोहन भागवत कौन हैं, जिनके पास दिल्ली का एक चुना हुआ मुख्यमंत्री चिरौरी करने पहुंच जाता है, जिनकी कोई संवैधानिक हैसियत ही नहीं है।