- विमल कुमार
राम- पवनसुत ! क्या इस बार भी तुम्हें साहित्य अकादमी अवार्ड नहीं मिला?
हनुमान- नहीं प्रभु! साहित्य अकादमी अवार्ड और मैं? दूर दूर का रिश्ता नहीं। मुझे साहित्य अकादमी अवार्ड कभी नहीं मिल सकता ।
राम- ऐसा क्यों? क्या तुम वामपंथी हो? लेकिन इस बार तो एक वामपंथी को मिल गया अवार्ड। इसलिए तुम कैसे कह सकते हो कि तुमको साहित्य अकादमी अवार्ड नही मिल सकता।
हनुमान- प्रभु आपको पता है मैं वानर जाति का हूँ। जन जातीय समुदाय से आता हूं। एक आदिवासी हूं और आदिवासियों को कभी साहित्य अकादमी अवार्ड नहीं मिल सकता।
राम- अरे नहीं हनुमान धीरे-धीरे उनका भी नंबर आएगा। देखा नहीं पिछले कई सालों में कई महिलाओं को मिला। अब पिछड़ों को मिल रहा है। अब तो बारी आदिवासियों और मुसलमान की हैं। तुमने देखा होगा एक आदिवासी को राष्ट्रपति बनाया गया तो जाहिर है एक आदिवासी को साहित्य अकादमी अवार्ड भी मिला जाएगा। लेकिन मुझे यह बताओ हिंदी साहित्य में साहित्य अकादमी अवार्ड को लेकर हर साल इतनी मारा मारी क्यों है? आखिर मुझे भी तो देखो। मुझे भी कहां कोई अवार्ड मिला? अपने जीवन में। न मुझे भारत रत्न मिला ना मुझे टैगोर पुरस्कार मिला। आखिर में भी तो इस मुल्क में बिना अवार्ड के रह रहा हूं तो फिर तुम्हारे हिंदी के लेखक अवार्ड के लिए इतने बेताब क्यों रहते हैं?
हनुमान- प्रभु आपको नहीं पता हिंदी साहित्य का चरित्र ही पुरस्कारमय है। बिना पुरस्कार के लेखक कुछ लिखता ही नहीं है। उसकी कलम में जान नहीं आती है। बेचारा हिंदी का लेखक जब एक पुरस्कार पाता है तो वह जीवन भर अहसान के तले जीता रहता है। उसे लगता है कि वह अमर हो गया है और इसी अमरता को पाने के लिए वह पुरस्कार के लिए बेताब रहता है।
राम- अगर मैं रावण के जीवन पर कोई उपन्यास लिखूं तो तुम मुझे अवार्ड दिलवा दोगे।
हनुमान- प्रभु! आप तिवारी जी से सम्पर्क करें। वे ही दिलवाएंगे।
(Disclaimer: प्रभु श्रीराम और हनुमानजी के बीच ये काल्पनिक संवाद है)