-विमल कुमार
इन दिनों अपने देश में अमृत काल की बहुत चर्चा है। जहां देखो वहां अमृत काल नजर आ रहा है। तो क्या अब हिंदी साहित्य में भी अमृत काल चलने लगा है? आखिर इस अमृत काल में अमृत क्या है? क्या अमर होने का “अमृत” है? क्या लोकप्रिय होने का अमृत है? या विभिन्न लोगों से संवाद करने का अमृत है?
एक न्यूज़ चैनल के साहित्यिक मेले में एक तरफ भोजपुरी फिल्मों के फूहड़ गायक होंगे तो दूसरी तरफ एक कलावादी कवि और संस्कृतिकर्मी भी होंगे। हालांकि यह अलग बात है कि दोनों अलग-अलग मंचों पर होंगे और आप दोनों को इस तरह मिला नहीं सकते। एक दूसरे को हिला नहीं सकते। लेकिन दोनों के पोस्टर अब सोशल मीडिया पर चमकते हुए नजर आ रहे हैं। इतना ही नहीं लोग धमकते हुए आ रहे हैं।
इतना ही होता तो कोई बात नहीं लेकिन अब आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य शिवपूजन सहाय और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की परंपरा के नए आचार्य “आचार्य प्रशांत” भी इस मेले में होंगे। अदनान सामी तो होंगे ही, जनवादी लेखक संघ के भी एक स्वामी होंगे तो दूसरी तरफ जसम के भी युवा स्वामी होंगे। इस तरह कुल मिलाकर देखा जाए तो वाकई यह साहित्य का अमृत-काल है। यह साहित्य का नया विस्तार है। यह लोकतंत्र का भी विस्तार है। दरअसल अब लोकतंत्र अपने नए फॉर्म में आ गया है। बाजार का तड़का इसमें लग चुका है और उसमें चैनल का झटका भी लग चुका है।
जाहिर है भक्ति काल के स्वर्ण काल के बाद छायावाद औऱ नई कविता तथा जनवादी कविता के स्वर्ण काल के बाद एक नया स्वर्णकाल है जिसे आप साहित्य का ‘अमृतकाल ‘ भी कह सकते हैं। तर्क यह है कि हम विभिन्न विधाओं से जुड़े कलाकारों से मिलने आए हैं। एक तर्क यह भी है कि हमें मंच पर अपनी बात कहनी है और हम अपनी बात रखने आए हैं। एक तर्क यह भी है कि विरोधी केवल वही है जिनको नहीं बुलाया गया है। एक तर्क यह भी है कि हम कहां-कहां नहीं जाएं और कहां-कहां जाएं, इससे कोई बंधन नहीं है। इसकी कोई राष्ट्रीय आचार संहिता तो किसी ने तय नहीं की है। एक तर्क यह भी है कि आखिर हम इस तरह सभी मंचों का बहिष्कार करते रहे तो हमारे पास क्या बचेगा? हम अपने पाठक को क्या देंगे? हम न जाकर क्या उखाड़ लेंगे? कल हम अकेले हो जाएंगे। भांति भांति के तर्क हैं और भांति भांति के विचार हैं। भांति भांति का सौंदर्य बोध है और भांति-भांति के विचारक हैं।
इन सबको को देखते हुए लगता है कि हम लोग अब साहित्य के “अमृत काल” में जी रहे हैं। इस अमृत काल में केवल नई पीढ़ी ही नहीं है बल्कि पुरानी पीढ़ी भी है। इसमें और अंत में प्रार्थना भी है और शहर अब भी संभावना भी है। इसमें स्त्रीवाद भी है। इसमें प्रमाद भी है। इसमें विवाद भी है। जो नहीं बुलाये गए उनका नाशाद भी है। इसमें दिल्ली भी है, कोलकाता भी है, जयपुर भी है, लखनऊ भी है। यह वाकई राष्ट्रीय है और अंतरराष्ट्रीय है। इसमें अभिनय भी है, नृत्य भी है, गायन भी है, ज्योतिष भी है, सॉन्ग भी है, इसमें प्रवचन भी है। इसमें साधु और संत भी हैं।। साहित्य यह सब देखकर दंग भी है। यह वाकई हिंदी साहित्य का अमृत काल है।
जो नहीं बुलाए गए वह जल भून रहे हैं, जो नहीं बुलाए गए उनकी छाती पर सांप लोट रहा है। जो नहीं बुलाए गए, वे बहुत बेचैन है। वे सो नहीं पा रहे। वे करवटें बदल रहे हैं। लेकिन यह तो साहित्य का अमृत कल है। यहां सब कुछ अब टीआरपी है या साहित्य की नई प्रतिबद्धता है, साहित्य का नया उद्देश्य है या साहित्य का नया चिंतन है। यह साहित्य की सेवा है। यह साहित्य की साधना है। यह साहित्य का नया मूल्य है या साहित्य का नया सौंदर्यबोध है। यह साहित्य की नई प्रतिबद्धता है। यह साहित्य की नई मानवता है इसलिए यह साहित्य आज तक भी है। यह साहित्य कल तक भी है। यह साहित्य परसों तक भी है। यह साहित्य जितना वर्तमान में है उतना भविष्य में भी है। यह जितना साहित्य है उतना साहित्य में नहीं। यह जितना मूर्त है उतना अमूर्त भी है। यह जितना आत्मजयी है उतना ही कालजयी भी है यह साहित्य का अमृत कल है।
यह नया धमाल है। जो नहीं गए वो बेहाल हैं पर सच तो यह है यह साहित्य का महाकाल है। फिर आप काहे काट रहे हैं बवाल। कोई जाने से मना कर दे किसकी मजाल है? इसलिए तो कहा कि साहित्य का अमृतकाल है। यह कीर्तन है यह भजन और झाल है। यह साहित्य में शेयर बाजार की उछाल है। यहां कोई झोला छाप है तो यहां कोई मालामाल है। आखिर उनको बदनाम करने की किसकी चाल है?