नई दिल्ली। अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को विधानसभा चुनावों में भले ही गहरा धक्का लगा हो लेकिन पार्टी और उनके नेताओं के हौसलों में कोई कमी नहीं आई है। पार्टी ने चार राज्यों में 215 उम्मीदवार मैदान में उतारे थे। उनमें से इक्का-दुक्का को छोड़कर सबकी जमानत जब्त हो गई। सबसे शर्मनाक यह रहा कि राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और मिजोरम में आम आदमी पार्टी को NOTA (Non of the above) से भी कम वोट आए। इस शर्मनाक प्रदर्शन के बाद भी आप के नेताओं ने सोशल मीडिया पर बेझिझक कहा कि हम आज भी उत्तर भारत की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी हैं और हमारे पास दिल्ली और पंजाब की सरकारें हैं।
गौरतलब है कि बीते 10 अप्रैल 2023 को चुनाव आयोग ने आम आदमी पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा दिया था। मगर विज्ञापनों के सहारे दौड़ने वाली ये पार्टी गुजरात और गोवा चुनावों के बाद हांफने लगी है। उसे लगा कि झूठे प्रचारों और फ्री बिजली-पानी के वादो के सहारे (जो ज्यादातर दिल्लीवासियों के लिए एक बहुत बड़ा झूठ है) हर जगह मैदान मार लेंगे। हर जगह मोहल्ला क्लिनिक का फॉर्मूला चल निकलेगा। ऐसा होना नहीं था और ऐसा हुआ भी नहीं। पार्टी अब इस बड़ी हार के बाद कह रही है कि वो अब अपनी अगली रणनीति इंडिया अलायंस की बैठक में ही तय करेगे। इंडिया गठबंधन की बैठक जो 6 दिसंबर को कांग्रेस अध्यक्ष ने बुलाई थी वो फिलहाल विवादों के बाद स्थगित कर दी गई है।
आम आदमी पार्टी ने राजस्थान की 200 सीटों में से 88, मध्यप्रदेश की 230 सीटों में से 70, छत्तीसगढ़ की 90 सीटों में से 57 और मिजोरम की 40 सीटों में से 4 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे और जीत का दावा किया था। लेकिन नतीजा हर जगह शून्य बटा सन्नाटा ही रहा। अगर हम NOTA के मुकाबले आम आदमी पार्टी को मिले वोटों की बात करें तो राजस्थान में 0.96 फीसदी लोगों ने NOTA का बटन दबाया, वहीं आम आदमी पार्टी को मिले महज 0.38 फीसदी वोट। यही हाल मध्यप्रदेश का भी रहा। जहां NOTA में 0.99 फीसदी वोट पड़े तो आप को 0.54 फीसदी वोट मिले। छत्तीसगढ़ की बात करें तो यहां NOTA में 1.27 फीसदी वोट डाले गए जबकि आप के खाते में आए 0.93 फीसदी वोट। मिजोरम में तो NOTA के 0.68 फीसदी वोट के मुकाबले आप को महज 0.09 फीसदी वोट ही मिल पाए। अगर वोटों की बात करें तो आम आदमी पार्टी को राजस्थान में कुल 148709 वोट, मध्यप्रदेश में 233458 वोट और छत्तीसगढ़ में 144710 वोट ही मिले। मिजोरम में तो बमुश्किल कुछ हजार वोट ही मिल पाए। तेलंगाना में आम आदमी पार्टी की इज्जत बच गई क्योंकि वहां केजरीवाल साहब ने चुनाव नहीं लड़ने का फैसला किया था।
अब ये बताने की जरूरत नहीं है कि एक-दो को छोड़कर ‘आप’ के सभी 220 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई। ये हाल तब रहा जब इन राज्यों में अरविंद केजरीवाल, भगवंत मान और पार्टी के दूसरे नेताओं ने एड़ी-चोटी का जोर लगा रखा था। पता नहींं वो शराब घोटाले में गिरफ्तारी से बचने के लिए इन राज्यों में सभाएं और रैलियां कर रहे थे या फिर इनका इरादा वाकई पार्टी का विस्तार और नीतियों से लोगों को वारिफ कराना था? फ्री-फ्री-फ्री का फॉर्मूला इन राज्यों में बुरी तरह फ्लॉप हो गया। क्योंकि जनता अब होशियार हो गई है। उन्हें मालूम है कि सरकार फ्री कुछ नहीं देती। आपके ही एक जेब से पैसे निकालकर दूसरे जेब में डाल देती है। और आपको लगता है कि ये तो मुफ्त मिल रहा है।
चार राज्यों की 560 सीटों में से 220 उम्मीदवारों की हार के बावजूद आम आदमी पार्टी बेबाकी के साथ कह रही है कि हम तो इन राज्यों में जीतने नहीं बल्कि अपनी पार्टी के विस्तार करने की नीयत से गए थे। ताकि एक राष्ट्रीय पार्टी होने का अपना फर्ज अदा कर सकें। ये बात दीगर है कि हर जगह आम आदमी पार्टी को वोटकटुआ या फिर बीजेपी के मददगार के तौर पर ही देखा गया। शायद यही वजह रही कि किसी भी राज्य की जनता से आम आदमी पार्टी और केजरीवाल को गंभीरता से नहीं लिया। आम आदमी पार्टी को जो वोट आए, उसकी वजह रही दूसरे पार्टियों के बागी उम्मीदवार। जिन्हें केजरीवाल साहब ने ढूंढ-ढूंढ कर टिकट दिया। ताकि कम से कम EVM का बटन कम या ज्यादा दब तो सके।
इस करारी हार के बावजूद केजरीवाल का कहना है कि पांच राज्यों के चुनाव नतीजे नेशनल मूड का संकेत नहीं हैं। लोक सभा चुनावों के नतीजों पर राज्यों के नतीजों का कोई असर नहीं पड़ेगा। इस दलील को आगे बढ़ाते हुए आम आदमी पार्टी के नेताओं का कहना है कि कर्नाटक के चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी की अनगिनत रैलियों और सभाओं के बावजूद बीजेपी के 31 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी। आंध्र प्रदेश में तो मोदीजी ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी, लेकिन नतीजा क्या आया? बीजेपी आंध्रप्रदेश में सभी 173 सीट हार गई और उसे भी NOTA से कम 0.84 फीसदी वोट मिले। इस हार के बावजूद आम आदमी पार्टी इस बात से भी खुश भी नजर आ रही है कि तीनों बड़े राज्यों में कांग्रेस की करारी हार के बाद इंडिया गठबंधन में उसकी हैसियत घट जाएगी और वो गठबंधन की बैठक में सीटों के बंटवारे में अपनी दादागिरी नहीं चला पाएंगे।