‘भाड़ में जाएं पीएम, हम तो बनेंगे बिहार के सीएम!‘
आजकल आप पटना या बिहार के किसी बड़े शहर में जाएंगे, नजर उठाकर देखेंगे तो आपको हर तरफ होर्डिंग्स, बैनर्स, कटआउट्स और पोस्टरों में मोदीजी ही नजर आएंगे। जिधर नजर दौड़ाएंगे मोदीजी अलग-अलग भाव भंगिमाओं और मुद्रा में वोट मांग रहे होंगे। बड़े-बड़े होर्डिंग्स, बैनर्स और पोस्टों में केंद्र की योजनाओं का बखान करते हुए मोदीजी बिहार की भोली-भाली जनता से एनडीए उम्मीदवारों के पक्ष में वोट डालने की अपील कर रहे होंगे। आपको ऐसा लगेगा, मानो पूरा बिहार मोदीमय हो गया हो। उन पोस्टरों में एनडीए के बाकी घटक दल, मसलन ‘हम’ और ‘वीआईपी’ पार्टी के ना तो चेहरे दिखाई देंगे और ना ही उऩके वादे इरादे। जिनकी हैसियत मोदीजी के समाने दरबान से ज्यादा की नहीं है।
अगर मोदीजी के साथ कहीं कोई और दिखेगा तो वो हैं बिहार की कुर्सी पर बीते 15 साल से विराजमान सुशासन बाबू यानी नीतीश कुमार। इस बार उनकी हालत जरा पतली ही नजर आ रही है और मोटा भाई किसी दुबले-पतले-कमजोर और पिलपिले शख्स को अपने साथ रखना पसंद नहीं करते। लिहाजा होर्डिंग्स की तो बात छोड़ दीजिए बिहार के अखबारों में छपनेवाले बीजेपी के विज्ञापनों से भी नीतीश कुमार गायब हो चुके हैं। बस ले-देकर मोदीजी और मोदीजी ही हैं। मानो मोदीजी नीतीश कुमार को बीच रास्ते गाड़ी से धक्का देकर गिरा दिया हो। चल हट निकम्मे, तुम्हारे कारण हमारी भी मिट्टी पलीद हो रही है। और नीतीश बाबू गुर्राने की कोशिश में मिमियाते हुए नजर आने लगे हैं।
अगर आप तुलनात्मक रूप से देखेंगे तो आपको तेजस्वी यादव के पोस्टर भी कहीं-कहीं दिख जाएंगे। खासकर पहले दौर के चुनाव के बाद इसमें कुछ बढ़ोत्तरी भी नजर आ रही है। मानो बिहार के व्यापारी वर्ग या फिर चुनाव के वक्त भविष्य के डिविडेंड के लिए निवेश करने वाले लोगों ने तेजस्वी की चुनौती को गंभीरता से ले लिया है। फिर भी पटना और दूसरे जिला मुख्यालयों पर मोदीजी के चमकदार चेहरे और पोस्टरों में दमकते उनके चेहरे के नूर के आगे सब के सब फीके ही नजर आ रहे हैं। कई बिहारी तो मजाक में पूछ बैठते हैं, कहीं मोदीजी का बिहार प्रेम इतना ना जागृत हो जाए कि देश अपना 56 इंची वाला प्रधानमंत्री ना खो दे। बिहार की धरती पर ताल ठोंक रहे मोदीजी कहीं स्वयं ही बिहार के मुख्यमंत्री पद पर अपना दावा ना ठोंक दें और घोषणा कर दें, ‘भाड़ में जाएं पीएम, हम तो बनेंगे बिहार के सीएम।‘
तो भाई आज के जमाने में कुछ भी हो सकता है। बिहार में पहले दौर का चुनाव हो चुका है और दूसरे और तीसरे दौर का चुनाव होने वाला है। 10 तारीख को रिजल्ट भी आउट हो जाएगा। तब सबको पता चल जाएगा कि कौन बीते पांच साल तक जनता के दुख-दर्द में शामिल रहा और उनके हक हुकूक के सवाल उठाता रहा। उनके बुनियादी मसलों, उनके दुख तकलीफों के साथ खुद को जोड़ा और मुसीबत के समय उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा रहा। बिहार के लोगों के सामने मोदीजी ने पहले तो कश्मीर में धारा 370 हटाने, ट्रिपल तलाक, पुलवामा और लद्दाख में बिहार के जांबाज सैनिकों की शहादत जैसे सांप्रदायिक और भावनात्मक मुद्दों पर वोट मांगा। लगा मामला जमा नहीं तो केंद्र सरकार की थकी हुई पुरानी योजनाओं का बखान शुरू कर दिया। अब काठ की हांडी तो बार बार चढ़ती नहीं ना, तो राम मंदिर निर्माण पर कूद पड़े। जब उससे भी बात बनती नजर नहीं आ रही तो अब पुलवामा के बहाने कांग्रेस पर निशाना साधना शुरू कर दिया है। राष्ट्रवाद जगाने लगे हैं।
लेकिन मोदीजी में बड़ी खासियत है। वो ये नहीं बताते कि पुलवामा हमले, जिसमें 40 से ज्यादा सैनिक शहीद हो गए उसकी एनआईए जांच का क्या नतीजा निकला? इंटेलिजेंस की नाकामी के लिए अबतक किसे कसूरवार ठहराया गया। मोदीजी ये भी नहीं बताते कि लद्दाख के गलवान घाटी में 20 सैनिकों की शहादत का बदला कब लेंगे? चीन ने हमारी जिस जमीन पर कब्जा कर लिया है उसे कब और कैसे उनके कब्जे से छुड़ाया जाएगा? मोदीजी पाकिस्तान को तो बेखौफ होकर कोसते हैं, उसे सबक सिखाने कि पता नहीं कितनी बार धमकी दे चुके हैं, लेकिन आजतक उनकी जुबां पर चीन या शी जिनपिंग का नाम नहीं आया। जिसके साथ हाल ही में वो साबरमती नदी के किनारे परंपरागत नृत्य समारोह के बीच झूला झुलते नजर आए थे। मोदीजी भूलकर भी नोटबंदी, अर्थव्यवस्था, रोजगार की बात नहीं करते। बेरोजगारी की बात नहीं करते। बेतरतीब तरीके से लागू जीएसटी की बात नहीं करते। चौपट उद्योग-धंधों की, शिक्षा, स्वास्थ्य की बात नहीं करते। वो सपने दिखाते हैं, सपने बेचते हैं और शायद सपने में ही जीते भी हैं। वो आज की तारीख में दुनिया में सपने बेचने के सबसे बड़े सौदागर बन बैठे हैं।
मोदीजी में एक राजसी प्रवृत्ति हैं। वो जब भी देने की बात करते हैं तो ऐसा लगता है मानो खैरात बांट रहे हों। जकात दे रहे हों। कोरोना काल में गरीबों को राशन देने की बात करते हैं तो लगता है मानो अपनी पुश्तैनी ‘बखारी’ या अन्नागार, जिसमें बुरे वक्त के लिए अनाज जमा कर रखा जाता है, से निकालकर अनाज बांट रहे हों। जनधन खाते में पैसा डालने की बात करते हैं तो लगता है अपने खून-पसीने की कमाई देश की जनता पर लूटा रहे हों। दरअसल, वो भूल जाते हैं कि वो जो बांट रहे हैं वो जनता का ही पैसा है। वो वोटरों का ही पैसा है। जो तिनका-तिनका कर उन्होंने भारत सरकार के खजाने में जमा किया है। वो गरीब-गुरबा लोग भले ही सीधे तौर पर देश के यानी मोदीजी के खजाने में टैक्स न भरते हों, लेकिन बीड़ी, सिगरेट, तंबाकू, दारू, नून-तेल, साबुन-सर्फ की खरीदारी में अप्रत्यक्ष कर रोज चुकाते हैं। जिससे सरकार की तिजोरी भरती रहती है।
आपने देखा होगा कि गुजरात में ‘सीप्लेन’ यानी समंदर के ऊपर उड़ने वाले हवाई जहाज पर कुलांते भरते मोदीजी अपनी खूबसूरत टोपी और रवींद्रनाथ ठाकुर जैसी दाढ़ी से बिहार के वोटरों को रिझाने की कोशिश कर रहे हैं। मानो दिलीप कुमार साहब की तरह गा रहे हों, ‘साला मैं तो साहब बन गया..।‘ कलगीधारी टोपी पहनकर राजकपूर की तरह अपने आप में खोए और कांधे पर झोला उठाए अलहड़ अंदजा में कह रहे हों, ‘मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंग्लिशतानी..।‘ अब मोदीजी भले ही ‘सीप्लेन’ के करिश्मे से वोट की उम्मीद लगाए बैठे हों, लेकिन लॉकडाउन में अपने बाल-बच्चों को कंधे पर उठाए सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर बिहार लौटे करीब 85 लाख प्रवासी अपने फटे पैर, जूते-चप्पल और भविष्य के लुटे सपने को देख रहे हैं। अब मोदीजी के इस राजसी अंदाज और ठाठ-बाट से वो कितना आकर्षित होंगे ये तो 10 नवंबर को ही पता चलेगा जब बिहार में वोटों की गिनती होगी।