चुनाव से पहले उत्तर प्रदेश के शहरों और गांवो में घूमते हुए यही नजर आया था कि आम लोग बेरोजगारी, कमरतोड़ महंगाई, महिलाओं की सुरक्षा, किसानों के शोषण और आवारा छुट्टा पशुओं जैसी समस्याओं से भयंकर रूप से त्रस्त हैं। एक-एक गांव में सैकड़ों नौजवान मिलते थे जिन्होंने किसी तरह पढ़-लिखकर डिग्री तो हासिल कर ली है, लेकिन नौकरी मिलने की उम्र निकलती जा रही है। नौजवानों का कहना था, ‘योगी सरकार भर्तियां तो निकालती है लेकिन उसके पेपर लीक हो जाते हैं और हम फिर से परीक्षा की तैयारी में जुट जाते हैं।’ यानी योगी सरकार की नीतियों को लेकर उनका गुस्सा एक झटके में नजर आ जाता था। महिलाएं कहती नजर आती थीं, ‘5 किलो मुफ्त राशन से जीवन चलेगा।’
ऐसे सैकड़ों घर देखें जहां परिवार के पास सिलेंडर भराने के पैसे नहीं थे। नए शौचालय कई जगह नजर आएं, लेकिन उनका इस्तेमाल स्टोर के रूप में ही होता नजर आया। पूछने पर बताते थे, ‘पानी का इंतजाम नहीं है तो इस्तेमाल कैसे होगा?’ लोगों की आम शिकायत ये थी कि इलाके के विधायक बीते 5 साल में उनका हालचाल पूछने नहीं आए। लोग बेलाग कहते नजर आए कि विकास के काम हुए नहीं हैं। सड़कों की हालत बेहद खराब है। पीने का साफ पानी नहीं है। स्कूलों की हालत जर्जर है और स्वास्थ्य केंद्र बदहाल हैं। प्रधानमंत्री आवास योजना के तहते जो घर दिए गए हैं उनके लिए भी पैसे लिए गए हैं। यानी सरकार के दावे हकीकत से कोसों दूर हैं। लोगों का कहना था कि बीजेपी के संकल्प पत्र में विकास के दावे सब किताबी बातें हैं।
तो क्या इस बार आप बदलाव के लिए वोट डालेंगे। इस सवाल पर गरीब लोग मुखर होकर साइकिल को वोट डालने की बात करते थे। लेकिन निम्न मध्यवर्ग और मध्यवर्ग का एक तबका ऐसा भी था जो अपनी परेशानियों को लेकर तमाम बेचैनियों का बयान तो तफ्शील से करता था, लेकिन वोट किसे देंगे, इस सवाल पर किंतु-परंतु में बात करने लगता था। (इनमें मैंने उन वोटरों को शामिल नहीं किया है जो सीधे-सीधे राष्ट्रवाद की बात कर रहे थे या फिर अखिलेश यादव के कट्टर समर्थक वाली श्रेणी के थे।) यानी वो अपनी समस्याओं से परेशान तो थे लेकिन इतने परेशान नहीं थे कि बेधड़क जाकर साइकिल पर बटन दबा दें। ऐसे वोटर बातचीत के अंत में कहते थे, बीजेपी और कुछ नहीं कर रही हो, कम से कम राम मंदिर तो बनवा रही है ना।
हमें ऐसे कई वोटर मिले जो साफ साफ कह रहे थे कि बीजेपी ने भले कुछ ना किया हो लेकिन मुसलमानों को संयमित कर रखा है। अब इनमें उन्हें कौन सा संतोष मिलता है ये वही जाने। यानी पूरे चुनाव में योगी की सरकार के खिलाफ नाराजगी इतनी नहीं थी कि सब एकमुश्त अखिलेश यादव को वोट कर दें। अखिलेश यादव शायद वोटरों के इसी मन को पढ़ पाने में नाकाम रहे या फिर वो उनकी निजी समस्याओं के निदान के फॉर्मूले के सहारे उस मन को नहीं जीत पाए जिसमें कहीं बीजेपी अरसे से नफरत के बीज बो रही है।
बीजेपी को अच्छी तरह मालूम था कि अपने फर्जी विकास के मॉडल के सहारे वो उत्तर प्रदेश का चुनाव नहीं जीत सकती। लाभार्थियों का एक बड़ा वर्ग जो उन्होंने राशन, गैस, शौचालय आदि देकर तैयार कर लिया है वो भी उन्हें सत्ता तक दोबारा पहुंचा पाने में नाकाफी होगा। लिहाजा अपनी नाकामियों को ढकने के लिए बीजेपी ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का सहारा लिया और ये आजमाया हुआ फॉर्मूला एकबार फिर से यूपी में चलता हुआ नजर आया। ये अचानक नहीं हुआ। बीजेपी ने इसकी ठोस तैयारी की और मोदीजी ने अपने मंदिर-मंदिर भ्रमण से इसे और पुख्ता बनाया।
बीजेपी ने पूरे चुनाव में वोटरों को धर्म की अफीम चटाने और उनके अंतर्मन के किसी कोने में बैठी सांप्रदायिकता को उभारने का काम बेशर्मी के साथ किया। अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण और काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के निर्माण के नाम पर वाहवाही लूटी, वहीं मथुरा में बवाल, बुर्का विवाद जैसे कई मुद्दों को आहिस्ते-आहिस्ते आगे बढ़ाया। और हिंदू मन को ये समझाने की कोशिश की कि आपका भला या कह लीजिए हिंदुत्व की रक्षा केवल बीजेपी ही कर सकती है। संघ और बीजेपी की इस विचारधारा के खरीदार कम नहीं निकले। जिनके बीच संघ अपनी नफरत भरी विचारधारा को लंबे समय से परोसती रही है। बाकी का काम मीडिया ने किया। टेलीविजन चैनलों पर चलने वाले पूजा-पाठ के घंटों लाइव प्रसारण ने लोगों के मन को झकझोरने का काम किया और एक बड़े वर्ग को वोट डालते वक्त हिंदू बना दिया।